चाबड़ी सावन में फिर खिल पड़ी
जैसे सूने आंगन में दुल्हन खड़ी
आज तक ना तेरा देखा बीज
फिर भी तू हाजिर हर तीज
धोरों की तू ढकती काया
तेरी कोमलता ने सबको लुभाया
जितना ज्यादा तुझको उखाड़ा
उतना बड़ा तूने बनाया अखाड़ा
अद्भुत है तेरे तन पर जंग छिड़ी
फिर भी तू खिल खिल पड़ी।
रेगिस्तान की तू है दूब
तेरी बहादुरी है बड़ी खूब
धोरों पर तो तू ही जूझे
सहे जीवों के वार अबूझे
पशुओं का तू उत्तम चारा
आदम का मन तूने संवारा
तेरा स्पर्श मन करे उजियारा
जीवन है तेरा पूरा उपकारा
मर कर भी तू स्कर्बर बनती
बर्तनों का मैल हरती
अच्छाई की ऐसी छाप छोड़ी
दूजी मिसालें मिले हैं थोड़ी
सावन में तू सरस-सरस खड़ी
जैसे सूने आंगन दुल्हन खड़ी।
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