फरवरी आ गई है और अब सुबह का टहलने जाना आसान बनने लगा है। हालासर नियुक्ति के दिनों में बुकलसर रोड पर घूमने जाना अपने आप में एक औषधि थी क्योंकि इन दिनों खेतों में सड़क के दोनों ओर सरसों के पीले फूल और उन पर गुनगुनाते भौंरे और सिंचाई के फव्वारों की रिमझिम किसी थेरेपी जैसा ऊर्जावान बना देता था और यह हर रोज होता था। उस सड़क पर भेड़ों के ऐवड़ में गधे पर लदी पानी की छागल(लोटड़ी), प्राकृतिक खाद से भरी बैलगाड़ी और ऊंट गाड़ी और ट्रैक्टर पर जोर से बजते तेजाजी के गीत अपने आप ही भ्रमण की लय और गति को बढा देते थे। हिरणों के झुंड का सरपट दौड़ लगाते हुए सड़क पार करना स्वत: ही जोगिंग के लिए प्रेरित करता था, तात्पर्य यह है कि प्रकृति स्वयं प्रेरणा थी।
श्रवण हुड्डा जी अक्सर ही खींचकर अपने खेत की मेड़ पर ले जाकर खेत की फसल को दिखाते थे ।वापस आकर एक गिलास असली गुनगुने दूध का सेवन इस भ्रमण को पूरा करता था। प्रकृति की देन मनुष्य को प्रकृति ही पुष्ट करती है। प्रकृति सूर्योदय से पहले जाग जाती है और प्रकृति के समीप रहने वाले को यह अवसर स्वाभाविक ही मिलता है । शहरों में जहां भी पेड़ पौधे हैं वे भी उन पर मौजूद पशु-पक्षियों की मदद से इस कार्य को करते हैं पर वह बात नहीं है।
घूमता अब भी हूं पर ना हुड्डा ना सारण
पैरों की वर्जिश भले हो, लगता है अकारण।।
गर्मी के आगमन को देखते हुए मुझे यों लगता है जैसे पेड़ चलते हैं और कुछ पेड़ चलकर मेरे साथ आ गये हैं और मैं जॉर्ज मॉरिस पंक्तियों को इनके बचाव के लिए पेश करता हूं :-
Woodman, spare that tree!
Touch not a single bough
In youth it sheltered me,
And I'll protect it now.
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