यह कुछ ऐसा ही है
जैसे घी तोलते
घी पी लेते हैं हाथ
साथ रहते - रहते
बन जाती है बात।
जैसे पतझड़ में अनयास
पतों की बरसात
बरसात में भीगकर
आती गर्माहट की बात।
जैसे अंधेरे में रहते
अनपढ़ के उद्गार
अक्षर के प्रकाश से
खोल देते नये द्वार।।
हां यह कुछ ऐसा ही है
जैसे पढ़ते - पढ़ते कोई किताब
याद आती लेखक की बात
बात से ही निकलती बात
पूछ बैठते खुद से ही औकात।
यह कुछ ऐसा ही है
जब पढ़ते हैं हम कोई तहरीर
खुद को भी देखते हैं उस जहां
करने लगते हैं खुद से बातें
शायद यही है कवि का कारवां।।
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