घाटी रूपी इस भवसागर में,
जीवन एक छोटा पत्ता है
एक दिन पत्ते ने पेड़ छोड़ा
सुखद उड़ान की आस में,
लेकिन उसे पता न था
उड़ान के फेर में कितनी बार गिरना है,
वह गिरा फिर उठा उठ कर फिर गिरा
इस गिर -उठ गिर -उठ के फेर में,
ना जाने कितनी ठोकर खाई
कुछ ठोकर इतनी उम्दा थी,
जिससे पत्ते ने नई आकृति पाई
आकृति के इस दौर में
उसको एक नई डोर मिली।
डोर पाकर पता इतराया
उसने खुद को पतंग पाया,
अब उसने आकाश में रंग दिखाया
अपने साथ रंगीन कोने बंधे,
एक दिन तूफान में डोर टूटी, पतंग छूटा
अब पतंग फिर पत्ता बना,
फिर यह अभिलाषा की,
कि नए पत्ते के लिए खाद बनूं
पत्ते कि जब उड़ान इतनी है
तो फिर यह अभिलाषा क्यों?
तो फिर यह अभिलाषा क्यों?
मोहन
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