दिल्ली हो या हाथरस दो हजार बारह हो या फिर दो हजार बीस बेटियों के लिए मुफीद नहीं अब यह अपना देश। तोड़ना पीड़िता की रीढ की हड्डी का हाथरस में भरता है आक्रोश नस नस में और साबित करता है रीढ विहीन हो गया है अब यह अपना देश । कानून चाहे कुछ भी करे संस्कारों की भी है दरकार संस्कारों की ही कमी धरती है दनुज का भेष 'लानत है' का मतलब अब कोई समझाता नहीं माता, पिता और गुरु वाला अब डर नहीं इसलिए ना शर्म बची है शेष बेटियों के लिए मुफीद नहीं अब यह अपना देश।