पचास पार का विधुर,
बातों को तरसता है।
है चारों तरफ सागर,
फिर भी रेगिस्तान में रहता है।।
करवा चौथ के दिन,
बार -बार छत पर जाता है,
पीछे मुड़- मुड़ ऐसे देखे,
शायद कोई आता है।।
पुराने दिनों के ख्वाब,
फिर से मन में आते हैं।
वो चटक चूड़ियां ,मेहरून लिबास,
अब भी पीछा करते हैं।।
वही चांद है ,वही धरती,
पर चारों तरफ खामोशी है।
खुद के चापों की आवाज,
के सिवा सब धोखा है।।
पचास पार का विधुर....
छत से उतरे ताके रसोई,
वहां सब सूना- सूना है।
पेट भराई के अलावा,
बाकी सब अनमना है।।
गृहस्थ जीवन नारी का वरदान है,
अगर वह नहीं तो घर ही शमशान है।
दिन अगर बीत जाए तो क्या,
रातें लगती तूफान हैं।
सबकी कोई मंजिल है ,
पर विधुर बे मंजिल हैं।।
पचास पार का विधुर....
भला हो गूगल का,
जहां पर उसकी सभा है।
दो चार "लाइक " पर ही,
बस वह टिका है।।
डर के मारे बच्चों से,
बात भी नहीं करता है।
क्या पता किसके हिरदे से,
कब दर्द छलक जाए।
इसलिए बस अपने आप में,
कछुआ सा सिमट जाए।।
पचास पार विधुर ....
अगस्त 84 एडमिशन ,रैगिंग हुई भरपूर, अभिमन्यु भवन तीर्थ था ,आस्था थी भरपूर। खिचाई तो बहाना था ,नई दोस्ती का तराना था, कुछ पहेलियों के बाद ,खोका एक ठिकाना था । भट्टू ,रंगा ,पिंटू ,निझावन ,मलिक ,राठी , सांगवान और शौकीन इतने रोज पके थे, रॉकी ,छिकारा ,राठी ,लूम्बा भी अक्सर मौजूद होतेथे । मेस में जिस दिन फ्रूट क्रीम होती थी, उस दिन हमें इनविटेशन पक्की थी। वह डोंगा भर - भर फ्रूट क्रीम मंगवाना, फिर ठूंस ठूंस के खिलाना बहुत कुछ अनजाना था, अब लगता है वह हकीकत थी या कोई फसाना था ।। उधर होस्टल 4 के वीरेश भावरा, मिश्रा, आनंद मोहन सरीखे दोस्त भी बहुमूल्य थे , इनकी राय हमारे लिए डूंगर से ऊंचे अजूबे थे। दो-तीन महीने बाद हमने अपना होश संभाला, महेश ,प्रदीप ,विनोद और कानोडिया का संग पाला । फर्स्ट सेमेस्टर में स्मिथी शॉप मे डिटेंशन आला ।। हमें वो दिन याद हैं जब नाहल, नवनीत,विशु शॉप वालों से ही जॉब करवाने मे माहिर थे , तभी से हमें लगा ये दोस्ती के बहुत काबिल थे । थर्ड सेम में आकाश दीवान की ड्राइंग खूब भायी थी, इसीलिए ला ला कर के खूब टोपो पायी थी। परीक्षा की बारी आई तो
Sunate raho siddh bhai...
ReplyDeleteAbsolutely right g
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