मकड़ी बुनती है जाल उसी में फंसकर रह जाती निरीह सी तड़पती फिर भी मुक्त ना हो पाती मैं बुनता शब्दों का जाल जिससे ऐसा होता कमाल प्रेम जाल में बंधकर रहते फिर घृणा की कहां मजाल ?
आज पैरों में घुंघरू बंधे हैं और सांसों में है सरगम मन मयूर यूं नाच रहा है जैसे लहरा दिया हो परचम राज बस इतना है कागज पर लिखते-लिखते अब पहुंच गया मैं किताब तक आसमानी कहानियों के संग पाया अपना मील का पत्थर अब पहुंच गया मैं बाजार सोशल मीडिया से निकल कर।।
एक बार देखा था मैंने उसे झेंपकर कहा था उसने क्या देखते हो इधर ? घबराहट में मैं भी भूल गया था अपना कवित्व झुका लिया था सिर लानत है मेरा कविता लिखना मैं नहीं शब्दों में पिरो सका जिस रूप को उसने आज हेयरकट को नया अंदाज देकर मेरी कविता पूरी कर दी देखकर तस्वीर लोगों ने ही मेरे मन की बात कह दी।।