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Showing posts from December, 2020

कर्म प्रकाशिनी गीता

रोज साझा करते हैं बातें भौतिकता वाली चलो आज एक दिन करें बातें कर्मों के सार वाली।      जब - जब मिलते हैं      और जो - जो मिलते हैं      बातें सिर्फ करते हैं       'मैं' हूं वाली गीता के प्रकाश में चलो आज जलाएं इस 'मैं' की होली।      हमारे शरीर के साथ-साथ     हम सब कुछ तैयार पहले से ही पाते हैं      लेकिन यह बात हम      समझ कब पाते हैं? गीता के प्रकाश में चलो आज ढूंढते हैं इस रहस्य की खोली।       ऐसे लुट रही है जिंदगी      और हम अनजान बनकर बैठे हैं      सच तो यह है कि हम व्यर्थ      इच्छाओं की गठरी लेकर ऐंठे हैं। आओ गीता के ज्ञान से इन इच्छाओं की गठरी को कीलें।

बोर्डर(सीमा)

बोर्डर कहता मुझ पर कभी‌ ठहरना मत वरना होगा विप्लव घर के बॉर्डर नजरें जो ठहरे तब पड़ोसियों में उपद्रव। देश के बोर्डर सेना टिके तब मानवता घुटने टेके राजधानी बॉर्डर किसान डटे तब अर्थशास्त्र कोने में सिमटे साड़ी बॉर्डर नजरें टिके तो समझो पांचो पांडव बिके सदा करो बॉर्डर का सम्मान इसमें है सबका कल्याण।।

किसान आंदोलन

सरकारें आती हैं सब्सिडी, लोन, बिजली से भरमाती हैं कर्ज के परिणामों से अनभिज्ञ!      किसान हंसता है      कुछ नकली हंसी      कुछ राहत की मदहोशी यह देख सरकार पैंतरा बदलती है अनाज को खुले बाजार की सुपुर्दगी का निश्चय करती है      किसान रोता है      अपना आपा खोने पर      मजबूर होता है!

बचपन की यादें

        मेरा बचपन सीधा था         बीता गोरे धोरों में। सूरज उगते खेत पहुंचते घर आते थे तारों में खेतों में मोर-पपीहे बोलते पशु चरते थे कतारों में      घरवालों से खूब डरता      बात समझता था उनकी इशारों में। शाम को खाने में हमेशा खिचड़ी दही रोटी का कलेवा था दोपहर में सांगरी की कढ्ढी संग बाजरी की रोटी का चलेवा‌ था      सर्दी जुकाम में चाय पीता      यही आदत थी चलन में। स्कूल चलती थी छप्पर में ना झंझट था गणवेश का पानी लाना, रोटी बनाना शामिल था गुरु सेवा में बारहखड़ी और पहाड़े बोलना मिलता था बस मेवा में      गुरुजी के डंडे का खौफ      अक्सर सताता था नींदों में। प्राथमिक बाद दूसरे गांव गया पैदल पढ़ने मीलों दूर घरवालों से पढ़ने के लिए करता रहता मैं जी हुजूर      इक्कीस रूपये सालाना फीस की खातिर      कई दिन व्यर्थ होते थे हल चलाने में। मैं बैठता था पढ़ने घरवाले ताना देते थे काम चोरी का कभी-कभी तो छीना- झपटी में वो रख देते थे कनपटी में      मां के साथ और आशीर्वाद से      सदा अव्वल रहा पढ़ाई में। मां सरस्वती की कृपा थी काम चलता रहा वजीफे में दोस्तों और शुभचिंतक

किसानों की व्यथा

उतार आए हैं सिर से सारे ही बोझ बैठे हैं सीमा पर चाहे पुलिस आये या फौज।        कभी मौसम ने लूटा        कभी महामारी        हम सहते रहे         सारी दुश्वारी दु:खों की कतार हमने देखी है रोज।        अस्तित्व कुछ होता है        यह हमें ना मालूम       ‌ सभी हमें छलते हैं       हमें पहचान की ना तालीम धरती से ही जुड़े हैं बस यही एक मौज।        हमें किसी से अपेक्षा नहीं        फिर भी यह कैसी जबरदस्ती        कृषि सुधार का टोकरा        लेकर आ गया राज रूपी हस्ति        सांसे हो गई महंगी गर्दन है सस्ती अब तो भूल चुके हैं करना अपनी ही खोज।

दिसंबर की धूप

दिसंबर की धूप लगती दुल्हन का रूप        रहती कोहरे के        घुंघट में सिमटी सी       निकलती लंच के समय         शरमाती सी सरकती ऐसे जैसे मेहंदी वाले पांव सरूप        देती है बस एक       अबोली झलक        जाना हो जैसे       उसे पीहर तलक कर जाती है हवाले ठंड के जो रहती सीने में कसक स्वरूप।।