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Showing posts from October, 2018

करवा चौथ यों समझ आई

पचास पार का विधुर, बातों को तरसता है। है चारों तरफ सागर, फिर भी रेगिस्तान में रहता है।। करवा चौथ के दिन, बार -बार छत पर जाता है, पीछे मुड़- मुड़ ऐसे देखे, शायद कोई आता है।। पुराने दिनों के ख्वाब, फिर से मन में आते हैं। वो चटक चूड़ियां ,मेहरून लिबास, अब भी पीछा करते हैं।। वही चांद है ,वही धरती, पर चारों तरफ खामोशी है। खुद के चापों की आवाज, के सिवा सब धोखा है।। पचास पार का विधुर.... छत से उतरे ताके रसोई, वहां सब सूना- सूना है। पेट भराई के अलावा, बाकी सब अनमना है।। गृहस्थ जीवन नारी का वरदान है, अगर वह नहीं तो घर ही शमशान है। दिन अगर बीत जाए तो क्या, रातें लगती तूफान हैं। सबकी कोई मंजिल है , पर विधुर बे मंजिल हैं।। पचास पार का विधुर.... भला हो गूगल का, जहां पर उसकी सभा है। दो चार "लाइक " पर ही, बस वह टिका है।। डर के मारे बच्चों से, बात भी नहीं करता है। क्या पता किसके हिरदे से, कब दर्द छलक जाए। इसलिए बस अपने आप में, कछुआ सा सिमट जाए।। पचास पार विधुर ....

# Me Too

जब हम छोटे बच्चे थे, तोते को मिटू कहते थे। मीटू वही बोलता था, जो उसे सिखाते थे। समय ने पलटी मारी, मिटू वह  बोलने लगा, जो दुनिया में होने लगा। अक्टूबर 17 में, एलिसा मिलानो ने, एक मी टू टि्वटर पर छोड़ा, और मि टू धाराप्रवाह बोला। मिटू मिटू सुन सुन के, दुनिया के कान खड़े हुए। पहले ही दिन 2 लाख, निकले मुद्दे गड़े हुए। भारत देश महान है, छुपाना इसकी शान है। साल भर बाद जब पापी घड़ा भरा, यहां भी मी टू बड़ा उभरा। कोई खेर, कोई रजत -भगत, कोइ नाना प्रचार में आए। कोई खास से आम हुए, कोई संस्कारी बदनाम हुए। हर संस्था में इसके, चर्चे बड़े आम हुए। जिस मजबूती से प्रचार हुआ, उससे ही मजबूरी का भान हुआ। चाहे चटखारा, चाहे मसखरी, बातें हैं सब खरी खरी। दिन बदल गए हैं भाई, जमाना लद गया है भाई। नारी की गरिमा समझो, उसको पूरा सम्मान दो, जोर - जबरदस्ती बेकार है, अब शब्दों की ही सरकार है। इसलिए सब धरो ध्यान, शील शब्द का रखो मान।। शुभकामनाओं के साथ मी टू को समर्पित                मोहन

50 days of Rational

The group rational was created on 18th August and it is exactly 50 days today to its formation. Actually we are almost in our 50s and we have seen a lot in our life .The beauty of our age is that now we see the world growing more younger, fresher and lively than we once supposed to be. Now we have discovered that traditions are true and therefore alive, indeed a tradition is not a tradition except it is alive. It is the aged people who realise the modernity and not the young, as they have never known anything else. The young people have stepped onto a moving platform which they hardly known to be moving. It is the advantage of beeing aged that they see the new things relieved sharply against a background, their shape definite and distinct. In background of the above thoughts, we had seen a good discussion in this group in last days on Section 377 IPC and 497 IPC in light of the Supreme Court judgements. The discussion well explained by our bureaucrat batchmates Mr Bhuvnesh Kumar gave