पचास पार का विधुर, बातों को तरसता है। है चारों तरफ सागर, फिर भी रेगिस्तान में रहता है।। करवा चौथ के दिन, बार -बार छत पर जाता है, पीछे मुड़- मुड़ ऐसे देखे, शायद कोई आता है।। पुराने दिनों के ख्वाब, फिर से मन में आते हैं। वो चटक चूड़ियां ,मेहरून लिबास, अब भी पीछा करते हैं।। वही चांद है ,वही धरती, पर चारों तरफ खामोशी है। खुद के चापों की आवाज, के सिवा सब धोखा है।। पचास पार का विधुर.... छत से उतरे ताके रसोई, वहां सब सूना- सूना है। पेट भराई के अलावा, बाकी सब अनमना है।। गृहस्थ जीवन नारी का वरदान है, अगर वह नहीं तो घर ही शमशान है। दिन अगर बीत जाए तो क्या, रातें लगती तूफान हैं। सबकी कोई मंजिल है , पर विधुर बे मंजिल हैं।। पचास पार का विधुर.... भला हो गूगल का, जहां पर उसकी सभा है। दो चार "लाइक " पर ही, बस वह टिका है।। डर के मारे बच्चों से, बात भी नहीं करता है। क्या पता किसके हिरदे से, कब दर्द छलक जाए। इसलिए बस अपने आप में, कछुआ सा सिमट जाए।। पचास पार विधुर ....