आज फिर पुराना एल्बम खोला , ग्रामीण मकान, मेड़ी,नेड़ी सब सामने आये, कुछ साथी रविन्द्र,रामकुमार और बजरंग से ख्यालों में आये, भाटिया साहब कंघी करते यों ही जवां से मुस्काये। उनकी भेंट दिवाल घड़ीअब पूरी हुई, पर समय आज भी मन ही मन मुस्काये। समय ने यादों के दरवाजे खोले, अब ना दर्पण, ना आरसी बोलें, अब बस सिर्फ यादें ही यादें बोलें। वो आगे इंजन वाली गज्जूजी की गाड़ी तब की चंचला, चपला, आज हेरिटेज हुई, मकान जहां हमने बंधन बांधा, आज है चोगुना पर लगता आधा। अर्जुन दादाजी द्वारा कन्यादान, कितना पवित्र,कितना महान। एक शमां और गहरा तूफान, लगता था अंधेरे का अपमान। खूब निभाया उसने मेल, गृहस्थ जीवन हो या हो खेल। खूब संवारा , खूब संजोया, जो कोई सानिध्य मे आया। दो-ढाई दशक की यादें ,अब लगती शोले, ऐ मेरे मन अब कुछ उस जैसा हो ले। दिन महिने बर्ष मेरे ख्याल टटोलें, अब बस सिर्फ यादें ही यादें बोलें। वक्त जब इम्तिहान लेता है, मिट्टी के खिलौने बिखेर देता है। तो भी पुरुषार्थ कहां मिटता है, संस्कार की शक्ल में जिंदा रहता है। बस इतना जरूर है फिर कभी खिलौने ना बोलें, बस फिर सिर्फ यादें ही